भारत की धड़कन उसकी भाषाओं में बसती है, और उनमें भी हिंदी वह धारा है जो उत्तर से दक्षिण, पूरब से पश्चिम तक भारत को एक सूत्र में बाँधती है। यह भाषा केवल संप्रेषण का साधन नहीं, बल्कि हमारी संस्कृति, सभ्यता और राष्ट्रीय चेतना की जीवनरेखा है।
संस्कृत की पवित्र धारा से बहती हुई हिंदी ने प्राकृत और अपभ्रंश का मार्ग पार किया। अवहट्ट से उठी ध्वनि, अवधी में तुलसी की रामचरितमानस बनकर लोकमानस में रम गई । ब्रजभाषा में सूरदास के पदों ने भक्तिरस के सागर को सूरसागर में भर दिया । कबीर ने अपनी निर्भीक वाणी से समाज को जगाया।
कबीर कहते हैं –
“साखी कहुं तो कहि सकौं, कहुं न त ऊतर जाय।
कहिबे को सोभा नहीं, देखन में सोई बात।।”
कबीर ने शब्दों को केवल काव्य-सौंदर्य तक सीमित नहीं रखा, बल्कि उन्हें सामाजिक चेतना का सशक्त हथियार बनाया। उन्होंने निर्भीक होकर धर्म के नाम पर पनपते आडंबर, पाखंड और कट्टरता पर प्रहार किया। उनकी वाणी में भक्ति का माधुर्य तो था ही, साथ ही समाज को जागृत करने की प्रखर शक्ति भी थी।
“पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय॥”
तुलसीदास ने अवधी में मर्यादा पुरुषोत्तम का आदर्श दिया।
” परहित सरिस धरम नहि भाई। परपीड़ा सम नहि अधमाई।।”
सूरदास ने ब्रजभाषा में कृष्णभक्ति की माधुरी गाई।
“मैया! मोहिं दाऊ बहुत खिझाय।
मुसुकि मुसुकि हँसि हँसि औरी बलाय।।”
कबीरदास और रहीम ने नीति और जीवन का गूढ़ ज्ञान दिया।
कहते हैं – “रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरो चटकाय।
टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ परि जाय।।”
आधुनिक युग में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने कहा :
“निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय के सूल।।”
मैथिलीशरण गुप्त ने भारत-भारती में राष्ट्रीय चेतना जगाई :
“हम कौन थे, क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी।
आओ विचारें आज मिलकर, ये समस्याएँ सभी।।”
दिनकर ने ओजस्वी स्वर में हिंदी को क्रांतिकालीन ऊर्जा दी :
“सीधी-सादी बात न मेरी, गर्जन है हुंकार नहीं।
मैं नर हूँ, नर के हित के लिए, आया धरती पर।।”
आपको पता ही है कि स्वतंत्रता संग्राम में हिंदी वह ध्वज बनी, जिसके नीचे करोड़ों भारतीय एकजुट हुए। जब-जब भारत माता ने अपने वीर सपूतों को पुकारा, हिंदी ही उनके स्वर की अनुगूंज बनी। यह भाषा जयप्रकाश नारायण के उद्गारों में, सुभाषचंद्र बोस के हुंकारों में और गांधीजी के सरल शब्दों में गूँजती रही ।
और आज देखिये हिंदी केवल भारत तक सीमित नहीं है। अमेरिका, कनाडा, फिजी, मॉरीशस, नेपाल और खाड़ी देशों तक यह भारतीय पहचान का झंडा गाड़ चुकी है। प्रवासी भारतीय हिंदी बोलकर अपनी जड़ों से जुड़े रहते हैं। हिंदी का फैलाव यह प्रमाण है कि हमारी भाषा में विश्वबंधुत्व और वसुधैव कुटुम्बकम् की आत्मा निहित है।
हिंदी दिवस पर हमें केवल भाषा का उत्सव नहीं मनाना है, बल्कि उसे अपनी राष्ट्रभक्ति का संकल्प भी बनाना है। हिंदी को अपनाना यानी भारत की आत्मा को अपनाना। यही वह भाषा है जो हमें हमारी संस्कृति, इतिहास और भविष्य से जोड़ती है।
भारतेंदु हरिश्चंद्र ने कहा –
“हिंदी हमारी मातृभाषा है, इसे जितना बढ़ाएँगे उतना ही राष्ट्र को सशक्त बनाएँगे।”
✍️ कुन्दन समदर्शी