📝 सेवक – एक लोकतांत्रिक मिथक

✍️ कुन्दन समदर्शी जब कोई नेता मंच से गरजकर कहता है – “मैं जनता का सेवक हूँ!”,तो ऐसा प्रतीत होता है मानो सिकंदर खुद कह रहा हो – “मैं जूते सिलने आया हूँ!”यह कथन जितना आदर्शवादी और मधुर सुनाई देता है,व्यवहार में उतना ही विरोधाभासी और विडंबनापूर्ण मालूम होता है। आज के नेताओं की ज़ुबान…

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ज़िंदगी की सलवटें

✍️-कुन्दन समदर्शीसमकुन्दन समदर्शीदर्शीन् समदर्शी संघर्षों की धूप देखी है,ऐ ज़िंदगी…कितने ज़ख़्मों के निशां अब भी हैं सीने पर। ये ज़ख़्म…जो अबचीखते नहीं,बस चुपचापसीने की तहों मेंकुछ गहरी सलवटों-से पड़े हैं,जिन्हें समय की उँगलियों नेबस सहलाया – सुलझाया नहीं। माथे की लकीरेंअब इबारत नहीं रचतीं,वे बसअनकहे स्वप्नों के अस्फुट मानचित्र हैं—जिन्हें वक़्त ने देखा भी,पर कभी…

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रामचन्द्र शुक्ल का चित्र

कविता क्या है?

✍️ लेखक — आचार्य रामचंद्र शुक्ल मनुष्य अपने भावों, विचारों और व्यापारों के लिए दिए दूसरों के भावों, विचारों और व्यापारों के साथ कहीं मिलता और कहीं लड़ाता हुआ अंत तक चला चलता है और इसी को जीना कहता है। जिस अनंत-रूपात्मक क्षेत्र में यह व्यवसाय चलता रहता है उसका नाम है जगत्। जब तक…

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नर हो, न निराश करो मन को

✍️ मैथिलीशरण गुप्त नर हो, न निराश करो मन कोकुछ काम करो, कुछ काम करो जग में रह कर कुछ नाम करोयह जन्म हुआ किस अर्थ अहो समझो जिसमें यह व्यर्थ न होकुछ तो उपयुक्त करो तन को नर हो, न निराश करो मन कोसँभलो कि सुयोग न जाए चला कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भलासमझो…

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🕯️ संवेदना का मौन

✍️ कुन्दन समदर्शी कुचल दिए कुछ प्रश्न थे,जो चीखते थे मौन में।कुछ उत्तर थे भीड़ के,जो दब गए समय के शोर में। वेदना लिपटी है मुस्कानों में,जैसे राख में बुझी चिंगारी।कोई देखे तो कह दे — अभिनय है,कोई सुने तो कहे — लाचारी। संवेदना का बाज़ार है,दया यहाँ दामों में बिकती है,आँसू भी अब डिब्बों…

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पूस की रात

प्रेमचंद हल्कू ने आकर स्त्री से कहा—सहना आया है, लाओ, जो रुपए रखे हैं, उसे दे दूँ, किसी तरह गला तो छूटे। मुन्नी झाड़ू लगा रही थी। पीछे फिरकर बोली—तीन ही तो रुपए हैं, दे दोगे तो कम्मल कहाँ से आवेगा? माघ-पूस की रात हार में कैसे कटेगी? उससे कह दो, फसल पर दे देंगे।…

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sipahi ka chitra

उसने कहा था

✍️ रचना: चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ (एक)बड़े-बड़े शहरों के इक्के-गाड़ी वालों की ज़बान के कोड़ों से जिनकी पीठ छिल गई है, और कान पक गए हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बंबूकार्ट वालों की बोली का मरहम लगावें। जब बड़े-बड़े शहरों की चौड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ चाबुक से धुनते हुए, इक्के वाले…

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garibi ka chitra

कफ़न

प्रेमचंद एक झोंपड़े के द्वार पर बाप और बेटा दोनों एक बुझे हुए अलाव के सामने चुपचाप बैठे हुए थे और अंदर बेटे की जवान बीवी बुधिया प्रसव-वेदना में पछाड़ खा रही थी। रह-रहकर उसके मुँह से ऐसी दिल हिला देने वाली आवाज़ निकलती थी, कि दोनों कलेजा थाम लेते थे। जाड़ों की रात थी,…

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daroga ka chitra

नमक का दारोग़ा

प्रेमचंद जब नमक का नया विभाग बना और ईश्वर-प्रदत्त वस्तु के व्यवहार करने का निषेध हो गया तो लोग चोरी-छिपे इसका व्यापार करने लगे। अनेक प्रकार के छल-प्रपंचों का सूत्रपात हुआ, कोई घूस से काम निकालता था, कोई चालाकी से। अधिकारियों के पौ-बारह थे। पटवारीगिरी का सर्वसम्मानित पद छोड़-छोड़कर लोग इस विभाग की बर्क़-अंदाज़ी करते…

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panch ka chitra

पंच परमेश्वर 

प्रेमचंद  जुम्मन शेख़ और अलगू चौधरी में गाढ़ी मित्रता थी। साझे में खेती होती थी। कुछ लेन-देन में भी साझा था। एक को दूसरे पर अटल विश्वास था। जुम्मन जब हज करने गए थे, तब अपना घर अलगू को सौंप गए थे, और अलगू जब कभी बाहर जाते, तो जुम्मन पर अपना घर छोड़ देते…

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