बहुत दिनों बाद मुल्ला नसीरुद्दीन से मिलने उनके पुराने दोस्त जमाल आए। जमाल को देखकर मुल्ला बेहद प्रसन्न हुए, आँखों में चमक आ गई और चेहरे पर मुस्कान फैल गई।
“बहुत दिन हो गए दोस्त! चलो, बाहर घूम आते हैं,” मुल्ला ने उत्साह से कहा।
जमाल ने अपनी ओर देखकर शर्माते हुए कहा,
“नहीं मुल्ला, मेरे कपड़े अच्छे नहीं हैं। ऐसे में बाहर जाकर लोगों से मिलना मुझे ठीक नहीं लगता।”
मुल्ला हँसे और बोले,
“बस, इतनी-सी बात है! मेरे पास एक बहुत अच्छी अचकन है, वही पहन लो। तुम पर खूब फबेगी!”
जमाल ने मना किया, पर मुल्ला कहाँ मानने वाले थे। आखिर अपनी जिद से उन्होंने जमाल को अपनी बेहतरीन अचकन पहना ही दी।
अब दोनों खुश-खुश बाहर घूमने निकल पड़े।
थोड़ी दूर चले ही थे कि मुल्ला अपने पड़ोसी से टकरा गए। उन्होंने बड़े गर्व से कहा,
“इनसे मिलिए, ये मेरे बहुत अच्छे दोस्त हैं। और हाँ… इन्होंने जो अचकन पहनी है, वो मेरी है।”
यह सुनकर जमाल जैसे गड़ गया।
चेहरा उतर गया, माथा ठनक उठा और मन में क्रोध भर गया।
अलग होते ही जमाल झुँझलाते हुए बोले,
“यह क्या जरूरत थी यह बताने की कि अचकन तुम्हारी है? अब तुम्हारा पड़ोसी क्या सोचेगा? कि मेरे पास अपने कपड़े तक नहीं?”
मुल्ला ने शर्मिंदा होकर कहा,
“अरे दोस्त, गलती हो गई। अब ऐसा नहीं कहूँगा।”
दोनों आगे बढ़े।
कुछ ही दूरी पर मुल्ला की एक और परिचित से भेंट हो गई। इस बार मुल्ला ने सुधरते हुए कहा,
“इनसे मिलो, ये मेरे बहुत अच्छे दोस्त जमाल साहब हैं। और जो अचकन इन्होंने पहनी है… वह इनकी अपनी है।”
अब तो जमाल का पारा सातवें आसमान पर पहुँच गया।
“अजीब आदमी हो तुम!” वे तीखे स्वर में बोले,
“अब यहाँ क्यों बताने लगे कि अचकन किसकी है? इसकी चर्चा करने की जरूरत ही क्या थी?!”
मुल्ला फिर सिर खुजाने लगे और बोले,
“ठीक है-ठीक है… अब मैं कुछ नहीं बोलूँगा।”
दोनों घर लौटने लगे।
रास्ते में मुल्ला के एक पुराने मित्र से भेंट हो गई। इस बार मुल्ला ने बड़े जोश से कहा,
“इनसे मिलिए, ये जमाल साहब हैं। मेरे पुराने मित्र हैं।
और इनकी अचकन के बारे में… कुछ न ही कहा जाए तो बेहतर है!”
इतना सुनते ही जमाल का चेहरा देखने लायक था —
न मुस्कान बची, न क्रोध की शक्ति।
🎯 कहानी से शिक्षा (Moral / सीख)
जो बात नहीं कहनी चाहिए, उसे “न कहने” का ढंग भी एक कला है।
कभी-कभी चुप रहना सबसे बुद्धिमानी भरा उत्तर होता है।