मनुष्य का जीवन संबंधों के ताने-बाने में बुना हुआ एक विस्तृत गलीचा है—रंगों, ध्वनियों और स्मृतियों से भरा हुआ। यह गलीचा तभी अर्थपूर्ण हो उठता है जब इसके धागे प्रेम, भरोसे और सहजता से पिरोए गए हों। संबंधों का महत्व मनुष्य की मानसिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक उन्नति में उतना ही अनिवार्य है जितना श्वास का जीवन में। किंतु यह सत्य भी उतना ही अटल है कि जैसे शरीर थक जाता है, वैसे ही संबंध भी थकते हैं; और जब यह थकान बोझ का रूप ले लेती है, तो बुनियादें भीतर ही भीतर चरमराने लगती हैं।
जीवन का सबसे बड़ा विडम्बन यही है कि मनुष्य संबंधों में ही अपना आश्रय ढूँढता है, और वही संबंध कभी-कभी उसके लिए सबसे बड़ा बोझ बन जाते हैं। वह जीवन का एक बड़ा हिस्सा इन संबंधों को सहेजने में लगा देता है—कभी समझाकर, कभी चुप रहकर, कभी अपनी इच्छाओं का बलिदान देकर, तो कभी अपने आँसुओं को भीतर ही भीतर सुखाकर। वह मानता है कि धैर्य का प्रतिफल अवश्य मिलेगा, कि संबंधों की मद्धिम लौ एक दिन फिर से प्रज्वलित होगी। पर धीरे-धीरे यह बोध भी मिलता है कि हर लौ को दुबारा जलना संभव नहीं; कुछ लौ बस राख में बदलकर अपनी नियति पूरी कर लेती हैं।
मनुष्य संबंधों के बिना जीवित नहीं रह सकता, पर कभी-कभी उन्हीं संबंधों का भार उसके भीतर की रोशनी को मंद कर देता है। यही वह क्षण है जब मन प्रश्न करता है—क्या जीवन केवल संबंधों को निभाने का नाम है, या उन संबंधों को प्रेम के धागों में पिरोकर सहजता और मुस्कान के साथ जीने का नाम है?
संबंधों की नींव प्रेम में हो, तभी जीवन की बगिया सच में महकती है। इनकी जड़ें बाहरी मिट्टी में नहीं, मन की गहराई में लगती हैं। मन तभी उपजाऊ होता है जब उसमें करुणा की नमी, धैर्य की कोमलता और प्रेम की ऊष्मा बनी रहे। जब संबंधों पर आरोपों की धूल, तानों की परत और अपेक्षाओं का बोझ जमा होने लगता है, तो वे भीतर ही भीतर अपनी ऊर्जा खोने लगते हैं। बाहरी चमक चाहे कितनी भी हो, भीतर के आधार धीरे-धीरे ढहने लगते हैं। ऐसे संबंधों में जीना उस दीवार पर टिके रहने जैसा है जो स्वयं ही दरक चुकी हो—जहाँ खड़ा तो रहा जा सकता है, पर सुरक्षित नहीं। संबंधों को जीवित रखने का रहस्य श्रम में नहीं, संवेदना में निहित है; जहाँ संवेदना है, वहाँ थकान नहीं पड़ती।
जब हृदय भारी हो जाए, तब जीवन का प्रत्येक कदम बोझ बन जाता है। जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी यह नहीं कि मनुष्य दुखी है; बल्कि यह कि वह दुखी होते हुए भी स्वयं को ढोता रहता है, जैसे उसका अपना ही जीवन उस पर एक अनचाहा भार हो। ऐसे हृदय संबंधों के बोझ तले दबी हुई सांसें लेते रहने के लिए मजबूर होते हैं—वह सांसें तो चलती हैं, पर उनमें जीवन का स्पंदन नहीं बचता। ऐसे लोग चलते तो हैं, पर गति में किसी मंज़िल का उल्लास नहीं होता; वे बोलते हैं, पर शब्दों में अनुभूति का कंपन नहीं रहता।
जीवन का उद्देश्य केवल समय बिताना नहीं, बल्कि उस समय में अर्थ ढूँढना है। वह अर्थ तभी मिलता है जब हृदय हल्का हो—जहाँ संबंधों का ऋण न हो, बल्कि सहयात्रा का सौंदर्य हो। जीवन को जीने के लिए एक ऐसा मन चाहिए जो मुक्त हो, जो शिकायतों की परतों और अधूरे संवादों की धुंध से ढका न हो—क्योंकि ऐसा हृदय न स्वयं उड़ सकता है, न किसी और को उड़ने का आकाश दे सकता है।
मुस्कुराना कोई साधारण भाव नहीं, यह मन की गहराई से उपजी साधना है। मुस्कुराहट तब जन्म लेती है जब आत्मा क्षमा की ऊष्मा में अपने घावों को पिघला दे, और मन यह समझ ले कि हर संघर्ष का समाधान प्रतिकार में नहीं, कई बार मौन में मिलता है; हर चोट का प्रतिफल कठोरता नहीं, कई बार करुणा होती है; और हर टूटन अंत नहीं, कभी-कभी पुनर्जन्म का पूर्वरंग होती है। जिसने क्षमा और छोड़ने की कला सीख ली, उसने जीवन का सबसे बड़ा रहस्य पा लिया।
प्रेम का सूक्ष्म सूत्र बाँधता नहीं, जोड़ता है। प्रेम को अधिकार की दृष्टि से देखना ही उसके क्षय का प्रारंभ है। प्रेम उतना ही कोमल है जितनी पंखुड़ी, और उतना ही स्थायी जितनी जड़ में छिपी नमी—जो वृक्ष को हर ऋतु में जीवन देती रहती है। संबंधों में प्रेम तभी जीवित रहता है जब समझाने से अधिक समझने का प्रयास हो, अपेक्षाओं से अधिक स्वीकार्यता हो, थकाने से अधिक सहारा हो, और घावों पर नमक नहीं, मरहम रखा जाए। प्रेम वही है जहाँ दो मन बिना दबाव, बिना भय और बिना शर्त के साथ चल सकें।
हर संबंध को बचाना आवश्यक नहीं। कुछ संबंध जीवन में केवल इसलिए आते हैं कि हम अपने भीतर की शक्ति, सीमाएँ और धैर्य समझ सकें। बोझिल संबंधों से दूरी बनाना कायरता नहीं, आत्मसम्मान का सहज उद्भव है। जागरूक मन जानता है कि हर टूटे धागे को जोड़ना बुद्धिमानी नहीं—कई बार नई बुनावट ही जीवन को नया अर्थ देती है।
जीवन वही है जहाँ हृदय हल्का हो। मनुष्य जितना प्रेम से भरा होता है, उतना ही हल्का होता है; और जितना हल्का होता है, उतना ही ऊँचा उड़ता है। जब संबंध भारी हो जाएँ, तब प्रेम से उन्हें ठीक करने का प्रयास उचित है; लेकिन यदि प्रेम की लौ बुझ जाए, तो नए सवेरे की ओर बढ़ जाना ही बुद्धिमत्ता है। जहाँ हृदय हल्का होता है, वहीं जीवन संगीत बन जाता है; जहाँ संबंध सौम्य होते हैं, वहीं जीवन कविता बन जाता है।
अंततः जीवन अपने मूल में एक ही सत्य पर टिकता है—प्रेम। वही प्रेम जो नादान नहीं, परिपक्व हो; जो शोर में नहीं, मौन में गूंजता हो; जो दिखावे में नहीं, आत्मा की अनुगूंज में छिपा हो।
संबंध वही मूल्यवान हैं जहाँ मन का बोझ नहीं, मन का विस्तार मिले।
और जीवन वही सार्थक है जहाँ जीना एक दायित्व नहीं, एक उत्सव बन जाए।
लेखक- कुन्दन समदर्शी