दशहरा — वह विजय पर्व,जो हमें याद दिलाता है कि कभी एक युग में सत्य ने असत्य पर विजय पाई थी,धर्म ने अधर्म को परास्त किया था,और मर्यादा पुरुषोत्तम राम के चरणों से रामराज्य की स्थापना हुई थी।जब श्रीराम ने रावण का वध किया,तो केवल एक राक्षस नहीं,बल्कि अहंकार, द्वेष, नफरत और छल का साम्राज्य समाप्त हुआ।हर लोक में उल्लास छाया,हर हृदय में श्रद्धा का दीप जला,और हर मनुष्य को विश्वास मिला —कि सत्य अंततः विजयी होता है।इसी दिन, माँ जगदंबा ने भी महिषासुर रूपी अहंकार का अंत किया था।इसलिए यह पर्व केवल विजय का नहीं,बल्कि आत्मशुद्धि और आत्मचेतना का पर्व है।हर युग में जब-जब बुराई बढ़ी,मानवता ने किसी राम की प्रतीक्षा की।हम भी आज उसी प्रतीक्षा में हैं।हर साल जब रावण का पुतला जलाते हैं,तो भीतर से एक आवाज़ उठती है — “चलो, बुराई का अंत हुआ, अब रामराज्य आएगा।”पर सच्चाई यह है —रावण मरा नहीं, वह हर बार राख से जन्म लेता है।कभी सत्ता में, कभी समाज में,कभी बाजार में,और कभी हमारे भीतर।क्योंकि रावण केवल दस सिरों वाला राक्षस नहीं था,वह आज हज़ार मुख वाला पाखंड है —कभी अहंकार के रूप में,कभी स्वार्थ, कभी झूठ, कभी अन्याय के रूप में।और राम?
राम आज भी विवश हैं —क्योंकि इस युग में
न लक्ष्मण का धैर्य बचा,
न भरत का त्याग,
न हनुमान की निष्ठा,
न सीता की मर्यादा,
न कौशल्या की करुणा।
अब तो हर दिशा मेंराम नहीं, राम के मुखौटे घूम रहे हैं।हम सबने अपने चेहरों पर एक-एक मुखौटा चढ़ा लिया है —किसी ने धर्म का, किसी ने नीति का,किसी ने भक्ति का, किसी ने न्याय का।पर भीतर —वहाँ रावण अट्टहास करता है,और हमारे कान में फुसफुसाता है — “मैं तुम्हारे हाथ से नहीं मर सकता,जाओ, पहले अपने भीतर का राम खोजो।”वर्ष 2025 का यह दिन एक अद्भुत संयोग लेकर आया है —आज दशहरा भी है और गांधी जयंती भी।कहने को दो पर्व हैं,पर दोनों की आत्मा एक ही है — सत्य की विजय।गांधी —एक ऐसा नाम जो सत्य का पर्याय बना,जो अहिंसा का पथिक बना,जिसने “रामराज्य” को केवल स्वप्न नहीं,बल्कि राजनीति का लक्ष्य बना दिया।उन्होंने कहा था — “मेरा जीवन ही मेरा संदेश है।”और सच में, उनका जीवन एक उपदेश था —सादा जीवन, उच्च विचार,त्याग की राह, और सेवा का धर्म।वे राम के अनन्य भक्त थे —उनका अंतिम शब्द था — “हे राम।”पर आज…राम भी लापता हैं,और गांधी भी संदर्भों से गायब।आज जहाँ एक ओरराम के अभाव में रावणत्व का बोलबाला है,वहीं दूसरी ओर गांधी को मारने वालों मेंरावणत्व की पराकाष्ठा दिखती है।जो व्यक्ति अहिंसा का पुजारी था,जो सत्य को जीवन का स्तंभ मानता था,जो त्याग और सेवा को कर्म बनाता था,उसे भी इस देश ने गोली दागकर मौन कर दिया |क्या यही हमारा दशहरा है?क्या यही हमारी विजय है?जहाँ हर वर्ष हम पुतले जलाते हैं,पर अपने भीतर के रावण को सिर पर बिठा लेते हैं?दशहरा हमें याद दिलाता है —पुतलों को जलाना आसान है,पर अपने भीतर की बुराई को जलाना कठिन।और गांधी हमें सिखाते हैं —सत्य का दीप जलाओ, हिंसा का नहीं।यदि हम सच में रामराज्य और रावण-वध चाहते हैं,तो पहले हमें गांधी के सत्य, अहिंसा और सेवा के मार्ग पर चलना होगा।क्योंकि जब तक हमारे भीतर का रावण जीवित है,और गांधी की आत्मा रो रही है,तब तक यह उत्सव सिर्फ बारूद का तमाशा रहेगा,विजय का पर्व नहीं।