हर देश में पर्व मनाए जाते हैं —
कहीं दिवाली की दीयों से उजाला होता है, कहीं ईद की सेवइयाँ मिठास घोलती हैं,
कहीं क्रिसमस के पेड़ सजते हैं, तो कहीं होली के रंग उड़ते हैं।
हर राष्ट्र अपने-अपने त्योहारों में मग्न होता है —
कभी धर्म के नाम पर, कभी परंपरा के, और कभी छुट्टी के बहाने।
लेकिन भारत में एक और अनोखा पर्व मनाया जाता है —
जिसमें ना पकवान बनते हैं, ना उपहार दिए जाते हैं, फिर भी सब व्यस्त रहते हैं।
हर गली, हर चौराहे पर चर्चा होती है —
यह पर्व आता है घोषणाओं की आतिशबाज़ी और वादों की बारिश के साथ।
नाम है — लोकतंत्र का महापर्व: चुनाव।
इस पर्व की सबसे खास बात ये है कि यह आने से पहले अपना “दूत” भेजता है —
आचार संहिता!
एक ऐसा मेहमान जो आते ही सरकार से कहता है —
“अब तुम सरकार नहीं, केवल ‘कार्यवाहक’ हो।”
जैसे शादी से ठीक पहले घर की दादी कहती हैं —
“अब नाचना-गाना बंद करो, रीति-रिवाज़ शुरू करो।”
आचार संहिता आते ही नेता तपस्वी मुद्रा में आ जाते हैं —
“अब हम कुछ नहीं कर सकते, हमें नियमों का पालन करना है।”
और जनता सोचती है —
“वाह! यही तो समय था जब कुछ किया जा सकता था!”
आचार संहिता कहती है —
“कोई उद्घाटन नहीं, कोई लोकार्पण नहीं।”
नेता कहते हैं — “अब हम सिर्फ़ ट्वीट कर सकते हैं।”
जनता कहती है — “तब भी तो पहले यही कर रहे थे।”
लेकिन सबसे ज्यादा असर उन योजनाओं पर होता है,
जो आधे रास्ते में लटक रही होती हैं।
जिस सड़क का उद्घाटन कल होना था, वह अब “चुनाव के बाद” तक स्थगित।
अस्पताल की आधारशिला रह जाती है, पर अस्पताल नहीं बनता।
जो योजनाएँ जनता तक पहुँचने की दहलीज़ पर थीं, वे भी ‘संहिता लागू है’ के बोर्ड तले दम तोड़ देती हैं।
और यदि चुनाव के बाद सत्ता बदल गई…
तो ये अधूरे काम “पुरानी सरकार की गलती” घोषित कर दिए जाते हैं।
नई सरकार कहती है —
“हम पिछली सरकार की योजनाओं की समीक्षा करेंगे।”
“नई सोच, नई योजना लाएंगे।”
और पुरानी योजनाएँ इतिहास के हवाले कर दी जाती हैं —
या फिर उन पर नए बोर्ड लगाकर उनका “पुनर्जन्म” होता है।
चुनावी आचार संहिता लोकतंत्र की वो ‘रीति’ है,
जो अचानक नेताओं को संयम, नैतिकता और मर्यादा की याद दिला देती है।
ठेके रुक जाते हैं, शिलान्यास छुप जाते हैं,
और नेता जनता को “भाई-बहन” कहने लगते हैं —
जैसे रिश्ता आज ही बना हो।
लेकिन ये संयम सिर्फ़ सरकारी कागज़ों तक सीमित होता है।
बाहर जनता देखती है —
रैलियों के लाउडस्पीकर बज रहे हैं, पोस्टरों की बाढ़ आई है,
और “जनसेवक” बनने की होड़ में हर चेहरा मुस्कुरा रहा है।
आचार संहिता कहती है —
“कोई लालच मत दो!”
नेता कहते हैं — “हम सिर्फ़ संकल्प-पत्र बाँट रहे हैं।”
संकल्प ऐसे कि अगर गांधीजी सुन लेते तो उपवास पर चले जाते।
असल में आचार संहिता नहीं रुकती — रुकता है केवल विकास।
सरकारी मशीनरी ठहर जाती है, पर प्रचार की मशीन पूरी रफ्तार से दौड़ती है।
जो नेता पहले कहते थे —
“हम जनता के सेवक हैं,”
वही अब कहते हैं —
“संहिता है, कुछ कर नहीं सकते।”
और जैसे ही ये दूत (संहिता) अपने निर्धारित समय पर चला जाता है —
पर्दा फिर से उठता है, सत्ता मंच पर लौटती है,
और “जनसेवा” का नाटक फिर शुरू हो जाता है।
लेकिन जनता हर बार भूल जाती है कि ये दूत, ये संहिता, ये पर्व…
असल में पाँच साल में एक बार आने वाला राजनीतिक ड्रामा है —
जिसमें कलाकार वही रहते हैं, पर रंगमंच थोड़ी देर के लिए झाड़-पोंछकर नया दिखाया जाता है।
✒️- लेखक: कुन्दन समदर्शी