कहते हैं, चश्मे का रंग तय करता है कि दुनिया कैसी दिखेगी। वही आँखें, वही दृश्य, वही परिस्थितियाँ — पर दृष्टि का रंग बदलते ही संसार का अर्थ बदल जाता है। यही जीवन का रहस्य है — हम जिस दृष्टिकोण से संसार को देखते हैं, वही दृष्टिकोण हमारे सुख-दुःख, सुंदरता-कुरूपता और आशा-निराशा का निर्धारण करता है।
जीवन स्वयं में न तो पूर्णतः सुंदर है, न कुरूप। यह तो एक दर्पण है, जो हमें हमारा मन दिखाता है। यदि मन प्रसन्न है, तो हर दृश्य में कोमलता है; यदि मन उदास है, तो हर ओर धुंध छा जाती है। चश्मे का रंग ही जीवन की व्याख्या बन जाता है।
हमारे दृष्टिकोण का निर्माण हमारे अनुभवों, संस्कारों और भावनाओं से होता है। बचपन की सीख, समाज से मिली मान्यताएँ, और अपने पूर्व अनुभव — ये सब हमारे भीतर ऐसे चश्मे गढ़ देते हैं, जो हमें जीवन का वास्तविक स्वरूप नहीं देखने देते। जिसने कभी धोखा खाया है, वह हर मुस्कान में छल खोजने लगता है। जिसने प्रेम पाया है, वह हर चेहरे में अपनापन देखता है। जिसे असफलता मिली है, वह सफलता के अवसरों में भी भय देखने लगता है।
यानी जीवन में हम जो देखते हैं, वह वस्तुतः हमारा भीतर है — बाहर नहीं। जब दृष्टिकोण कलुषित हो, तो उजाला भी अंधकार लगे; और जब मन निर्मल हो, तो अंधकार भी दीप बन जाता है।
हमारे पूर्वाग्रह और अनुभवों की छाप हमारे निर्णयों और भावनाओं को गहराई से प्रभावित करती है। हम व्यक्ति नहीं देखते — उनकी जाति, धर्म, वर्ग या भाषा देखते हैं। हम घटना नहीं समझते — अपने पक्ष और विपक्ष में तर्क गढ़ लेते हैं। यही कारण है कि दो व्यक्ति एक ही दृश्य देखते हैं — एक कहता है “संध्या का सौंदर्य”, दूसरा कहता है “रात का अंधकार”। सत्य तो एक ही है, पर देखने वाले अनेक हैं। और हर कोई अपने चश्मे से ही देखता है।
दृष्टिकोण की शक्ति वही है, जो अग्नि की होती है — सही दिशा में हो तो प्रकाश देती है, गलत दिशा में हो तो दहन कर देती है। जब दृष्टि कलुषित, संकुचित और नकारात्मक हो जाती है, तो उसका प्रभाव जीवन के हर क्षेत्र में फैल जाता है। ऐसी दृष्टि सबसे पहले रिश्तों की ऊष्मा को क्षीण करती है। स्नेह में शंका, सलाह में नियंत्रण, और मौन में दूरी देखना — यह सब उस मन की पहचान है जो अपने ही अनुभवों की धुंध में कैद है। फिर यह दृष्टि व्यक्ति के मन पर असर डालती है। हर परिस्थिति में हानि, हर व्यक्ति में विरोधी, हर प्रयास में विफलता देखने वाला मन धीरे-धीरे अवसाद और आत्मसंदेह से भर जाता है।
इसके बाद यह दृष्टि विकास और निर्णयों पर असर डालती है। ऐसा व्यक्ति अवसर नहीं देख पाता, क्योंकि वह पहले से मान चुका होता है कि प्रयास व्यर्थ है। वह तथ्यों से नहीं, भावनाओं से निर्णय लेता है — और हर गलती का दोष परिस्थितियों को देता है। सामाजिक स्तर पर यही दृष्टि व्यक्ति को पूर्वाग्रहों का दास बना देती है। वह दूसरों को उनके धर्म, जाति या मत से आंकता है, और विविधता को विरोध मान लेता है। और अंततः, यह दृष्टि व्यक्ति की आध्यात्मिक उन्नति रोक देती है। क्योंकि जो बाहर दोष ही दोष देखता है, वह भीतर के प्रकाश को कभी नहीं पहचान पाता।
वास्तव में, नकारात्मक दृष्टिकोण व्यक्ति को संकुचित, असंतुलित और असंतुष्ट बना देता है। उसकी बुद्धि सीमित, उसका मन भ्रमित, और उसका जीवन बिखरा हुआ हो जाता है। इसलिए, जीवन की समग्रता तभी संभव है जब दृष्टिकोण संतुलित, सकारात्मक और निर्मल हो।
दृष्टिकोण केवल जीवन की दिशा ही नहीं, संबंधों की स्थिरता भी तय करता है। जब दृष्टि विकृत होती है, तो सबसे पहले उसकी आँच रिश्तों पर पड़ती है। हम अपनों के शब्दों में स्नेह नहीं, व्यंग्य खोजने लगते हैं। उनकी सलाह में भलाई नहीं, नियंत्रण देखने लगते हैं। उनकी सफलता में प्रेरणा नहीं, प्रतिस्पर्धा का भय देखने लगते हैं।
और जब दो विपरीत दृष्टिकोण वाले व्यक्ति परिणय सूत्र में बंधते हैं, तो यह भिन्नता और भी स्पष्ट हो जाती है। विवाह केवल दो शरीरों या संस्कारों का नहीं, दो दृष्टिकोणों का मिलन है। यदि एक की दृष्टि आशा से भरी हो और दूसरे की संशय से, तो जीवन का हर निर्णय एक खींचतान बन जाता है। एक व्यक्ति जीवन की चुनौतियों में अवसर देखता है, दूसरा उनमें भय। एक संवाद में समाधान खोजता है, दूसरा उसमें आरोप। एक मौन को समझता है शांति, दूसरा उसे दूरी मान लेता है।
इस प्रकार दृष्टिकोण का असंतुलन संबंधों में कटुता, दूरी और मानसिक थकान जन्म देता है। यह थकान केवल हृदय को नहीं, विचारों की उड़ान को भी रोक देती है। दार्शनिक दृष्टि से देखा जाए तो, संबंधों में असहमति केवल मतभेद नहीं — आंतरिक असंतुलन का प्रतिबिंब है। जब दृष्टि कलुषित होती है, तो प्रेम भी विवाद बन जाता है; और जब दृष्टि निर्मल होती है, तो असहमति भी सीख बन जाती है।
जीवन में उन्नति केवल ज्ञान या परिश्रम से नहीं, बल्कि निर्मल दृष्टि से होती है। क्योंकि जिस मन में करुणा और समझ है, वही सृजनशील बनता है। और जो अपनी दृष्टि को कठोर बना लेता है, वह दूसरों के साथ-साथ अपनी अंतर्यात्रा भी रोक लेता है। जो व्यक्ति अपने संबंधों में समरसता लाता है, वह भीतर से विस्तृत होता है। और जो दृष्टि को संकुचित करता है, वह अपने आकाश को छोटा कर लेता है।
जब हम इन रंगीन चश्मों को उतारना सीखते हैं, तब जीवन का वास्तविक प्रतिबिंब दिखाई देने लगता है। तब न व्यक्ति अच्छे-बुरे लगते हैं, न परिस्थितियाँ सुखद-दुखद; सब अपने यथार्थ रूप में स्वीकृत हो जाते हैं। निर्मल दृष्टि ही वह अवस्था है, जहाँ जीवन का सौंदर्य पूर्ण रूप में अनुभव होता है। जीवन की असली सुंदरता वस्तुओं, व्यक्तियों या घटनाओं में नहीं, हमारी दृष्टि में निहित है। जैसे स्वच्छ जल में आकाश का प्रतिबिंब स्पष्ट होता है, वैसे ही स्वच्छ दृष्टि में जीवन का सत्य झलकता है।
यदि हमें जीवन में आनंद, शांति और समरसता चाहिए, तो सबसे पहले हमें अपने चश्मे का रंग बदलना होगा। अपनी दृष्टि को संशय से विश्वास की ओर, कटुता से करुणा की ओर, और निराशा से आशा की ओर मोड़ना होगा।
जीवन वही है — बदलता बस दृष्टिकोण है। और दृष्टिकोण बदलते ही, वही धुंधला आकाश उजाला बन जाता है, वही शुष्क भूमि हरियाली बन जाती है। वास्तविक सुंदरता बाहर नहीं, हमारी दृष्टि में निहित है।
“दृष्टि को बदलो, संसार स्वयं बदल जाएगा।”
✍️ लेखक: कुन्दन समदर्शी