एक सुनहरी सुबह की कोई शाम लिख दूँ,
ठोकर खाकर जो गिरा, वो अंजाम लिख दूँ।
जज़्बातों के भँवर में ऐसे उलझा हूँ, यारो,
चलो ज़िंदगी के सारे इम्तिहान लिख दूँ।
जो सीखा है हमने अपनी तन्हाइयों में,
उस हर सफ़े पर अपना पैग़ाम लिख दूँ।
कभी सन्नाटों ने दिया हौसला मुझको,
कभी आंधियों में खुद ही सँभाला खुद को।
अब दर्द भी साथी है, ख़ुशी भी हमसफ़र,
हर धड़कन को मैं इक नया सलाम लिख दूँ।
ग़म की गली में भी उम्मीदों का चिराग लिए,
हार की राह पर भी जीत का नाम लिख दूँ।
टूटी हुई ख़्वाहिशों को नया रूप दूँ मैं,
राख से सपनों का फिर एक स्वरूप दूँ मैं।
अंधेरे की गोद से उजाला चुन लाऊँ,
टूटे अरमानों को परवाज़ लिख दूँ मैं।
थके पाँव लेकर जो चल पड़ा सफ़र पर,
उस राहगीर की मैं दास्तान लिख दूँ।
पसीनों से सींची हुई मेहनत की मिट्टी में,
महकता हुआ कोई गुलिस्तान लिख दूँ।
जहाँ आंसुओं ने सीखा है मुस्कुराना,
जहाँ ग़म के साये ने सीखा गुनगुनाना।
वो लम्हे, वो किस्से, वो राज़-ए-हयात,
हर दर्द को अपना अरमान लिख दूँ।
सपनों की चौखट पे जब ठोकर पड़ी थी,
उम्मीद की लौ भी तब फीकी पड़ी थी।
फिर हिम्मत ने दिल में जलाया जो दीप,
उस रौशनी को मैं आसमान लिख दूँ।
वक़्त की दरारों में जो छिपा उजाला है,
उसकी चमक को भी मैं बयान लिख दूँ।
गिरने और सँभलने की इस यात्रा को,
इंसानियत का असली सम्मान लिख दूँ।
जहाँ धोखे मिले पर भरोसा न टूटा,
जहाँ कांटे चुभे पर सफ़र न रूठा।
उन राहों की मिट्टी को माथे लगाकर,
हर संघर्ष को अपना ईमान लिख दूँ।
ज़िंदगी के आँचल में सुख-दुख के रंग हैं,
हर मोड़ पर बिखरे अनगिनत ढंग हैं।
उन दास्तानों को क़लम में सजा कर,
मैं जीने का असली अरमान लिख दूँ।
जब अंतिम पड़ाव पर थक कर रुकूँगा,
अपने सफ़र को पलट कर देखूँगा।
तो हर मोड़ पर यही पैग़ाम होगा,
कि हार के बाद भी मुस्कान लिख दूँ |
✒️ कुन्दन समदर्श