✨ मौन की मशाल

मौन की मशाल का चित्रा

भूमिका:
हर युग की क्रांति में शोर नहीं होता — कभी एक मौन ही होता है जो समय को जगा देता है। यह कविता उन खामोश आंदोलनों, लेखनी की ताकत, और आंतरिक ज्वालाओं को समर्पित है, जो बिना नारे, बिना बगावत के प्रतीक बन जाती हैं।

हर काम शोर मचाकर नहीं होता,
कुछ काम ख़ामोशी कर जाती है।
कुछ लम्हे यूँ भी आते हैं जीवन में,
न नगाड़े बजते, न आवाज़ उठती है।

हर हार में केवल शिकस्त नहीं होती,
कभी हार भी जीत की राह बनाती है।
जो ठोकरें गिरा देती हैं राह में,
वही मंज़िल तक पहुँचा जाती हैं।

हर आवाज़ ऊँची हो — ज़रूरी नहीं,
कभी चुप्पी भी क्रांति की दस्तक होती है।
हर आंदोलन नारों से नहीं उठता,
कभी मौन ही मशाल बन जाती है।

जब प्रेमचंद ने थामी लेखनी,
तो शब्दों में आंधी समा गई।
‘गोदान’ की धरती हिलने लगी,
‘गबन’ में चेतना की लौ जल गई।
‘पूष की रात’ में वह सो गए,
पर जग को जागती कहानियाँ दे गए।

जब भगतसिंह मुस्कुराए फाँसी पर,
तो कोई नारा नहीं गूँजा,
पर चुप्पी में बारूद भरा था,
आकाश तक सन्नाटा काँप उठा।
हर दिल में शोला सुलग उठा,
हर रग़ में बग़ावत गूंज उठी।

जब मेरी कॉम ने उठाया मुक्का,
कोई ढोल नहीं बजा, कोई जश्न नहीं हुआ।
पर चुपचाप करोड़ों बेटियाँ उठीं,
और सपनों की उड़ान भर गईं।
कल्पना चावला जब पहुँची गगन में,
तो आकाश में एक नाम सितारा बन गया।

✍️ रचना: कुन्दन समदर्शी

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