(जन्म विशेषांक – 30 जून 1911)
लेखक – कुन्दन समदर्शी
हर काल में कुछ कवि केवल शब्दों के साधक नहीं होते — वे समय के साहसी साक्षी होते हैं।
बाबा नागार्जुन ऐसे ही जनकवि थे, जिनकी कविता ने साहित्य को सजाने के बजाय समाज को झकझोरने का कार्य किया।
उनकी कविता में भूख की हूक है, क्रांति की चेतना है, और व्यंग्य की भट्ठी में तपे हुए शब्दों का तेज है।
🌕 जन्म नहीं, जनजागरण का आरंभ
30 जून 1911, ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा, जब बिहार के मधुबनी ज़िले के सतलखा गाँव में वैद्यनाथ मिश्र का जन्म हुआ, तब किसी को ज्ञात नहीं था कि यह बालक एक दिन नागार्जुन के रूप में हिंदी कविता को जनपथ पर ले जाएगा।
नागार्जुन का साहित्य मठों और महलों का नहीं, बल्कि मजदूरों और मटमैली धरती का था। वे कविता को केवल सौंदर्य नहीं, सत्य का उपकरण मानते थे।
🪶 कविता का बहुरूप : छंद, शिल्प और व्यंग्य की त्रिवेणी
बाबा नागार्जुन की कविताएँ शिल्प की दृष्टि से अत्यंत वैविध्यपूर्ण हैं।
कभी वे छंदबद्ध होकर लोक की लय में बहती हैं, तो कभी मुक्तछंद बनकर सत्ता को ललकारती हैं।
एक ही कविता में कई छंदों का प्रयोग, एक साथ प्रतीक, उपमा, व्यंग्य और यथार्थ का प्रवाह — यह उनकी विशेषता थी।
उनकी राजनीतिक कविताओं में व्यंग्य की जो धार है, वह इतनी प्रभावशाली है कि प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह ने उन्हें “कबीर के बाद हिंदी का सबसे बड़ा व्यंग्यकार” कहा।
“इंदु जी इंदु जी क्या हुआ आपको,
सत्ता के नशे में भूल गईं बाप को!”
यह पंक्तियाँ मात्र व्यंग्य नहीं, बल्कि आपातकालीन सत्ता की अंधता पर जनकवि का निर्भीक प्रतिरोध हैं।
जब अधिकांश कवि चुप थे, तब नागार्जुन की कलम बोल रही थी — जनता की ओर से, न्याय के पक्ष में।
🌾 कविता, जो खेत की धूल से जन्मी, भूख से सींची गई
बाबा नागार्जुन की कविताओं में सबसे करुण और संवेदनशील छवि मिलती है उस कविता में जो आज भी अकाल की सर्वश्रेष्ठ साहित्यिक अभिव्यक्ति मानी जाती है:
“कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास,
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उसके पास।”
यह पंक्तियाँ 1950 के दशक में बिहार में आए भीषण अकाल की मार्मिक अभिव्यक्ति हैं।
यहाँ ‘चूल्हा रोना’ एक प्रतीक है — उस घर की दशा का जहाँ भूख ने आत्मा को भी निराश्रय बना दिया हो।
‘कानी कुतिया’ का सोना भी इस बात का संकेत है कि भोजन का कोई अंश भी उपलब्ध नहीं, जिसे कुत्ते तक पा सकें।
इस कविता ने साहित्यिक समाज को झकझोरा और यह सिद्ध किया कि नागार्जुन भूख के सौंदर्य नहीं, भयावहता को रचते हैं।
🏆 सम्मान उस साहित्य का, जो जनता के लिए था
बाबा नागार्जुन को मैथिली काव्य-संग्रह ‘पत्रहीन नग्न गाछ’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ।
यह संग्रह केवल भाषाई प्रयोग नहीं, आंतरिक जीवन संघर्षों का आईना है।
📚 प्रसिद्ध कविताएँ — एक जनजीवन की जीवंत गाथा
नागार्जुन की कविताएँ साहित्य नहीं, समाज की आवाज़ हैं।
उनकी प्रमुख कविताओं में हैं:
अकाल और उसके बाद
बादल को घिरते देखा है
बहुत दिनों के बाद
तीनों बंदर बापू के
हरिजन-गाथा
कालिदास
प्रतिहिंसा ही स्थायी भाव है
उनको प्रणाम!
इन रचनाओं में कहीं आँसू हैं, कहीं आग — और इन दोनों के बीच जागरण की मशाल।
🌟 नागार्जुन : कवि ही नहीं, एक बहुआयामी साहित्यिक व्यक्तित्व
बाबा नागार्जुन को केवल कविता तक सीमित कर देना उनके व्यक्तित्व का संकुचन होगा।
वे हिंदी साहित्य के उन विरले साहित्यकारों में रहे हैं, जिन्होंने लगभग हर विधा में गंभीर और क्रांतिकारी हस्तक्षेप किया।
उपन्यासों में उन्होंने सामाजिक विषमता, स्त्री संघर्ष और ग्रामीण जीवन के यथार्थवादी दस्तावेज़ —
👉 बलचनमा,
👉 रतिनाथ की चाची,
👉 वरुण के बेटे —
के रूप में प्रस्तुत किए।
यात्रा-वृत्तांतों में (जैसे “यात्रा में एक दिन”) हमें अनुभवों की सौंधी महक और संवेदनशील दृष्टिकोण मिलता है।
बाल-साहित्य में वे सरल भाषा और करुणा से भरी नैतिक कहानियाँ रचते हैं।
निबंध और आलोचना में भी वे स्पष्ट विचारों और जनपक्षधर दृष्टिकोण के साथ उपस्थित होते हैं।
वे केवल हिंदी ही नहीं, मैथिली, संस्कृत और बांग्ला में भी साहित्य रचने वाले बहुभाषी रचनाकार थे —
जो साहित्य को एकांगी नहीं, व्यापक लोकसरोकारों से जुड़ी बहुस्तरीय रचनात्मकता मानते थे।
🔥 कवि नहीं, आंदोलन का अग्रदूत
नागार्जुन किसी विचारधारा के बंधन में नहीं थे।
वे न केवल कवि थे, बल्कि आंदोलनकारी भी, गिरफ्तार भी हुए, और साहित्य को जनसंघर्ष का औजार बनाकर प्रस्तुत किया।
उनकी लेखनी बार-बार सत्ता से टकराई और हर बार जनता के पक्ष में खड़ी रही।
🙏 बाबा आज भी जीवित हैं — शब्दों के रूप में, संघर्षों के रूप में
1998 में जब बाबा इस संसार से विदा हुए, वे केवल शरीर से गए।
उनकी कविता आज भी हर उस व्यक्ति में जीवित है जो न्याय के लिए बोलना चाहता है, जो भूख के विरुद्ध लिखना चाहता है, जो सत्ता से सवाल करना चाहता है।
नमन उस जनकवि को, जिसने कविता को संघर्ष का स्वर बनाया —
और साहित्य को जनता की भाषा में अनुवादित कर दिया।
📍 लेखक: कुन्दन समदर्शी
📌 ब्लॉग: www.myhindagi.com
🗓️ विशेषांक: 30 जून – बाबा नागार्जुन जन्म-जयंती पर श्रद्धांजलि